सोमवार, अगस्त 08, 2011
IF SWISS ACCOUNTS ARE EXPOSED
लेबल:
corruption,
funny,
manmohan singh,
swiss bank
शनिवार, मई 14, 2011
सोमवार, मई 02, 2011
गाँव से बड़े शहर
गाँव से बड़े शहर, लेकर आया था सपने,
ज्यादा लोगो ने दिखाए, कुछ ही थे अपने |
एक मित्र ने कहा और
करने लगा एक बड़ा course
जिसकी थी लाखो में फीस,
दिन रात की कड़ी मेहनत,
लगा कंप्यूटर देवता का नाम ही जपने |
साथ मुझे वहां अच्छा मिला,
पर कुछ को है मुझसे गिला,
एक कंपनी को मैं भाया, लगी मुझे लपकने |
मेहनत मेरी रंग लाई,
तनख्वाह नहीं जेब खर्चा देंगे,
बड़ी कम्पनी देख मुह में आया पानी,
कुछ ही दिनों में हकीकत जानी,
दिमाग में एक बात लगी खटकने |
15 सालों से कर रहे जो काम,
सभी ज्ञाता, पर किसी को नहीं है आराम,
ऐसे होतें है सपने पूरे !
मैं भी सपनों की चाहत में
कितना कुछ तज आया ,
तभी नौकरी छोड़ी,
और सपनों को साथ लिए चल दिया,
अपने सुंदर गाँव की ओर………
गुरुवार, अप्रैल 28, 2011
आशाओं के दीप
साँझ ढले मैं आशाओं के दीप जलाया करता हूँ..
थाम उजाले का दामन
मन ने कुछ सपने देखे थे,
कुछ कलियों की सीपों में
कुछ मोती पुष्प सरीखे थे,
मन उड़ बैठा था पंछी सा
तोड़ समझ की हर बेड़ी,
आशाओं की मदिरा से
अमृत के प्याले फ़ीके थे,
उस छोर सभी जो देखे थे वह दृश्य बनाया करता हूँ
साँझ ढले मैं आशाओं के दीप जलाया करता हूँ..
धूप बढ़ी फिर
स्वप्न सेज की सुँदरता मुझसे रूठी,
राहों का हर काँटा बोला
"कटुता सच्ची मधुता झूठी"
मन बोल उठा बैठे रहने से कब सुख किसने पाया है,
हँसी ठिठोली करता सुख उसने यह स्वाँग रचाया है,
हर पल तन की पीड़ा सेहता मैं हर्ष मनाया करता हूँ
साँझ ढले मैं आशाओं के दीप जलाया करता हूँ..
कुछ दूर मैं शायद चल बैठा
अब दूर वह सपने दिखते हैं,
वृद उजाला सेहमा सा
सँध्या के आरोही साँसें भरतें हैं,
कुछ रही अधूरी आशायें फिर भी मैं चलता रहता हूँ
मन के कल्पित स्वपनों का स्वर इस पथ को अर्पित करता हूँ,
जिस पहर उजाला सोता है मैं आस जगाया करता हूँ
साँझ ढले मैं आशाओं के दीप जलाया करता हूँ...
- परिमल श्रीवास्तव
बुधवार, अप्रैल 27, 2011
जहाँ लोग सरेआम पेशाब करते मिलें
हम तीन दोस्त जालंधर से दिल्ली आ रहे थे. जिस डिब्बे में हम थे, उसी डिब्बे में दो पंजाबी युवक भी पहली बार दिल्ली आ रहे थे. उनके दिमाग में दिल्ली की वो तस्वीर थी, जो उन्होंने किताबों में पढ़कर बनाई होगी या फिर टीवी पर देखकर. उन दोनों ने पूछ लिया दिल्ली कब आएगी. तभी एक परेशान से आदमी ने कहा- भाई जब दीवारें लाल लाल दिखाई देने लगें तो समझ लेना दिल्ली पहुँच गए.
एक युवक ने कहा- अच्छा लाल किला!
नहीं बच्चे, लाल किला नहीं, लोगों ने थूक-थूक कर हर जगह को लाल गीला किया हुआ है. युवक जोर से हस पड़े.
फिर वही आदमी बोला- "जहाँ लोग सरेआम पेशाब करते मिलें" और जहा तुम्हारे कानों में एक ही लाइन सुनाई दे.......
एक पूछने लगा- कौन सी लाइन?
"अबे, बहन के,,,,,,,,," तो समझ लेना बेटा कि तुम दिल्ली में हो.
इस बार सभी जोर-जोर से हँस रहे थे,
पर हम लोग ये सोच रहे थे कि ये आदमी की बात पर हँस रहे हैं या देश कि राजधानी दिल्ली पर.....
गुरुवार, अप्रैल 14, 2011
शुक्रवार, मार्च 25, 2011
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