bouncing ball

गुरुवार, अप्रैल 28, 2011

आशाओं के दीप

साँझ ढले मैं आशाओं के दीप जलाया करता हूँ..
थाम उजाले का दामन
मन ने कुछ सपने देखे थे,
कुछ कलियों की सीपों में
कुछ मोती पुष्प सरीखे थे,
मन उड़ बैठा था पंछी सा
तोड़ समझ की हर बेड़ी,
आशाओं की मदिरा से
अमृत के प्याले फ़ीके थे,
उस छोर सभी जो देखे थे वह दृश्य बनाया करता हूँ
साँझ ढले मैं आशाओं के दीप जलाया करता हूँ..

धूप बढ़ी फिर
स्वप्न सेज की सुँदरता मुझसे रूठी,
राहों का हर काँटा बोला
"कटुता सच्ची मधुता झूठी"
मन बोल उठा बैठे रहने से कब सुख किसने पाया है,
हँसी ठिठोली करता सुख उसने यह स्वाँग रचाया है,
हर पल तन की पीड़ा सेहता मैं हर्ष मनाया करता हूँ
साँझ ढले मैं आशाओं के दीप जलाया करता हूँ..

कुछ दूर मैं शायद चल बैठा
अब दूर वह सपने दिखते हैं,
वृद उजाला सेहमा सा
सँध्या के आरोही साँसें भरतें हैं,
कुछ रही अधूरी आशायें फिर भी मैं चलता रहता हूँ
मन के कल्पित स्वपनों का स्वर इस पथ को अर्पित करता हूँ,
जिस पहर उजाला सोता है मैं आस जगाया करता हूँ
साँझ ढले मैं आशाओं के दीप जलाया करता हूँ...

                                   - परिमल श्रीवास्तव

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर सकारात्मक भाव...... आशावादी सोच से परिपूर्ण रचना .....

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छा लिखते हो भाई कितनी आशाए छुपी है इस कविता में में समझ सकता हूँ आखिर एक एडिटर ही एडिटर की समझ सकता है !

    जवाब देंहटाएं
  3. हवाएं चली थीं ये सोचकर
    दीप को बुझा देंगी
    दीप लड़खड़ाया जरूर
    पर बुझा नहीं
    क्योंकि
    दीप की साँसें
    हवाओं से तेज थीं

    जवाब देंहटाएं